रविवार, 19 जुलाई 2009

राजनीतिक उपद्रवी और पुलिस के असली चेहरे ..


उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री मायावती-रीता बहुगुणा विवाद के दौरान एक बार फिर राजनीतिक उपद्रवी और पुलिस के असली चेहरे सामने आ गए। इससे यह भी साबित हो गया कि इन दोनों का गठबंधन कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के आधार पर बदलता रहता है। इलेक्ट्रानिक मीडिया इसका बहुत अच्छी तरह से खुलासा कर रहा है। प्रिंट मीडिया की काफी सीमाएं हैं जिसके वह इस गठबंधन को उजागर करने में अपना योगदान नहीं दे पा रहा है।

इलेक्ट्रानिक मीडिया को यह भी चाहिए कि रीता बहुगुणा कि मायावती के खिलाफ आखिर वह कौन-सी टिप्पणी थी जिसको लेकर इतना बवाल मचा। रीता बहुगुणा ने तो टिप्पणी पर माफी मांगने की बात कह दी मगर वह टिप्पणी कौन-सी थी जिस पर मायावती को इतना गुस्सा आया। ऐसी टिप्पणियों को भी प्रसारित किया जाना चाहिए जिससे नेताओं की जुबान पर लगाम लग सके। (मैंने न तो वह टिप्पणी कहीं पढ़ी न किसी चैनल पर देखी।) जिस तरह से नेता चुनावी सभाओं और राजनीतिक रैलियों, प्रदर्शन और सभाओं में अनाप-शनाप जो भी मुंह में आता है बोल देते हैं उस पर नियंत्रण किया जा सकेगा।

वैसे मायावती के राजनीतिक गुंडों ने जो रीता बहुगुणा के घर पर किया वह शर्मनाक ही नहीं अत्यंत घटिया है। कानून के पहरेदारों ने जिस तरह उनके कृत्य को मौन स्वीकृति दी वह समाज के लिए घातक संकेत है। कानून के पहरेदारों में वे लोग थे जो अखिल भारतीय स्तर की परीक्षाओं में बैठकर ऊंचे ओहदे पर पहुंचते हैं। अगर यह कृत्य टीआई, एसआई करता तो ये ही लोग उसे संंस्पेंड करते, कार्यशाला-संगोष्ठी में उनके बारे में कहते कि वे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होते हैं। टीवी में जो कुछ देखा उसको देखकर लगता है कि आईपीएस अधिकारी भी लुके-छिपे ढंग से नहीं खुलकर राजनीतिक संरक्षण हासिल करने में जुटे हैं। जब विपक्ष के इतने बड़े नेता के साथ सरकार का यह रवैया है तो फिर आम जनता गलत काम के खिलाफ आवाज उठाने का सोच भी कैसे सकेगी।

- रवींद्र कैलासिया

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