शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

पत्रकार यानि सरकारी समितियां और सरकारी आवास...

मध्यप्रदेश में पत्रकार का मतलब शायद केवल सरकारी आवास में रहना और सरकारी समितियों में शामिल होना माने जाने लगा है। अफसर हो या नेता, पत्रकार का मतलब यही निकालने लगे हैं। जो पत्रकार निजी आवास में और बिना समिति का सदस्य होता उसे अप्रभावी पत्रकार माने जाने लगा है। सरकारी आवास और सरकारी समितियों के सदस्य कुछ पत्रकार वैसे कॉलर ऊपर कहते भी हैं इसे अपनी कामयाबी मानते हैं क्योंकि इसके लिए जितनी मेहनत वे करते हैं शायद खबर के लिए कभी नहीं की होगी।
सरकारी आवास में रहने के लिए पत्रकारों ने जितनी मेहनत की है वह उनसे स्वयं पूछना चाहिए। रोज सुबह दरबार में खड़े होकर आग्रह करना पड़ा। एक नहीं दसियों बार वे दरबार में पेश हुए तब कहीं जाकर उन्हें सरकारी आवास मिला। हालांकि इनमें से कुछ असरदार पत्रकारों को ऐसा करने की कभी जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि सरकार उन्हें खुद ओवलाइज करना चाहती है। मगर ऐसे पत्रकारों की संख्या उंगली पर गिनी जा सकती है। इनके अलावा कुछ ऐसे पत्रकार भी हैं जिनके अफसरशाही में अच्छी पकड़ थी तो जैसे ही कोई उनका अफसर वहां पहुंचा तो उसका फायदा उन्होंने उठा लिया। मगर इन दो श्रेणी के पत्रकारों की संख्या बहुत सीमित है और दरबार में हाजरी देकर आवास पाने वालों की संख्या बहुत ज्यादा।
दूसरा सरकारी समितियों में आने वाले पत्रकार आपने आपको इनमें शामिल करने के लिए जिस तरह की कवायद करते हैं वे स्वयं जानते हैं। कुछ पत्रकारों को अफसर और नेता अपने हित में उपयोग करने के लिए अपनी तरफ से समितियों में रख लेते हैं मगर ऐसे पत्रकार कई बार समितियों में होने के बाद अपनी कलम चला ही देते हैं। कुछ ऐसे समितियां हैं जिनमें सदस्य कोई सलाह तो नहीं देते मगर देशाटन पर जाने के लिए सलाह जरूर देते हैं कि इस बार कहां जाना चाहिए। फलां प्रदेश की समिति तो पांच-छह बार विदेश हो आई है इस बार आप भी हमें विदेश ले चलें। जिस काम के लिए समिति बनी है वह तो एकतरफ रह जाता है।
कुल मिलाकर मप्र में सरकारी आवासों और पत्रकार समितियां में पहुंचने की कवायद के लिए कई पत्रकार दिनचर्या ही बदल लेते हैं। जैसे इसके प्रयास करते हैं तो उनका सुबह का रुटिन बदल जाता है और वे श्यामला हिल्स व 74 बंगलों के तीन बंगलों के ईर्दगिर्द देखे जाने लगते हैं। कुछ लोग पर इसका फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सरकारी की मजबूरी है कि उनको अगर शामिल नहीं किया उनके चयन पर उंगलियां उठ सकती हैं।
- रवींद्र कैलासिया

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

भ्रष्टाचार केवल नाम बदलने से खत्म हो जाएगा?


मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यह कहते हैं कि आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) जैसा काम करना चाहिए वैसे नहीं कर रहा है उसका नाम बदलकर एंट्री करप्शन ब्यूरो करने का विचार है। मगर मुख्यमंत्रीजी क्या केवल नाम बदलने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा या काबू में आ जाएगा। नहीं उसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति चाहिए। जब पूरे प्रदेश में यह चर्चा है कि जिलों में प्रशासन और पुलिस आदि पदों की नीलामी होने लगी है तो भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए अंदर इच्छा भी होना चाहिए।
मुख्यमंत्री ने ईओडब्ल्यू के काम से असंतुष्टि भोपाल के पहले मेट्रो थाने (हबीबगंज) के उदघाटन के मौके पर व्यक्त की। उनकी यह व्यथा शायद भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाली राज्य की स्वतंत्र इकाई लोकायुक्त को लेकर ज्यादा लगती है। लोकायुक्त में राज्य मंत्रिमंडल के करीब एक दर्जन सदस्यों सहित कई अधिकारियों की शिकायतें लंबित हैं। खुद मुख्यमंत्री के खिलाफ भी एक अपराधिक प्रकरण लोकायुक्त में दर्ज है। उसे कमजोर करने के लिए मुख्यमंत्री की यह पहल ज्यादा लगती है। हालांकि अभी तक उन्होंने इसके पूर्व ऐसी बात जुबान पर नहीं लाई थी। पूर्व लोकायुक्त रिपुसूदन दयाल के जाने के एक महीने बाद श्री चौहान की ईओडब्ल्यू को भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच करने की इकाई बनाने की बात सार्वजनिक तौर पर कहने का यह पहला मौका है।
इसके पीछे मूल वजह यह है कि ईओडब्ल्यू का नियंत्रण राज्य सरकार के पास रहता है। उसका राजनीतिक इस्तेमाल बहुत आसानी हो सकता है। जबकि लोकायुक्त संगठन की स्वायत्ता के कारण सरकार का उस पर बस नहीं चलता। वैसे राज्य सरकार ने वहां मुख्य लोकायुक्त का पद कायम करने का बहुत प्रयास किया मगर फैसला नहीं हो सका। ऐसा लोकायुक्त-उप लोकायुक्त अधिनियम के प्रावधानों की वजह से नहीं हो सका। इसमेंबदलाव के लिए सरकार को विधानसभा में संशोधन ले जाना पड़ेगा। कुल मिलाकर मुख्यमंत्री को ईओडब्ल्यू का कामकाज पसंद नहीं आने का मुख्य कारण यही है भ्रष्टाचार की जांच करने वाली स्वतंत्र एजेंसी लोकायुक्त को कमजोर किया जा सके।
- रवींद्र कैलासिया

रविवार, 26 जुलाई 2009

वीआईपी सुरक्षा में लापरवाही, समीक्षा तो नहीं समाचार रुकवाने में ताकत झोंकी

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस ) प्रमुख मोहन भागवत पिछले दिनों जब भोपाल आए तो उन्हें वापस नागपुर छोडऩे के लिए भोपाल पुलिस ने कोई इंतजाम नहीं किया और जब अंतिम समय में यह लापरवाही सामने आई तो तुरत-फुरत इंतजाम किया गया। सुरक्षा की विशिष्ट श्रेणी जेड प्लस प्राप्त श्री भागवत की सुरक्षा में लापरवाही को भोपाल पुलिस ने अपनी खामियों को पता लगाने के लिए गिरेबां में झांकने की बजाय इससे जुड़े समाचारों को रुकवाने में समाचार पत्रों पर दबाव के लिए पूरी ताकत झोंक दी।
बात 24 जुलाई की है जब भागवतजी भोपाल से नागपुर के लिए केरल एक्सप्रेस से जाने वाले थे। उनके रिंग राउंड (सुरक्षा घेरे) में लगे सुरक्षाकर्मी अपनी निर्धारित ड्यूटी कर वापस लौटने लगे तो वहां मौजूद स्वयं सेवकों में से किसी ने टोक दिया अब यहां से भागवतजी के साथ कौन पुलिस वाले जाएंगे? यह सुनकर रिंग राउंड ड्यूटी में तैनात सुरक्षाकर्मी भी दंग रह गए क्योंकि किसी अन्य पुलिसकर्मी ने यह जिम्मेदारी ली ही नहीं थी। वरिष्ठ अधिकारियों को जब इस बारे में बताया गया तो उन्होंने आनन-फानन में उनको ही भागवतजी को नागपुर तक छोड़कर आने को कहा और आम्र्स गार्ड की अलग से व्यवस्था की गई।
देशभर में जहां एक तरफ वीआईपी को लेकर हंगामा मचा है वहीं भोपाल पुलिस की इसके प्रति यह लापरवाही साबित करती है कि यहां के अफसर कितने गंभीर हैं। इस खामी को लेकर आत्म-मंथन करना तो दूर भोपाल पुलिस के अधिकारी इसमें जुट गए कि यह खबर किसी अखबार में छप नहीं जाए। इसके लिए उन्होंने पूरी ताकत झोंक दी। हालांकि वे इसमें सफल भी हो गए मगर वीआईपी की गाड़ी अगर स्टेशन से छूट रही होती और रिंग राउंड को वरिष्ठ अधिकारियों को बताने का मौका नहीं मिलता तो क्या स्थिति बनती। ऐसे में वीआईपी के साथ कोई घटना होने पर जिस तरह की जिम्मेदारी तय की जाती क्या इस खामी के लिए वही जिम्मेदारी निर्धारित नहीं होना चाहिए। समाचार पत्रों को क्या पुलिस वाले अपनी वाह-वाही के लिए इस्तेमाल करने का साधन समझने लगे हैं? अपनी आलोचना सुनने या पढऩे का साहस पुलिस में नहीं बचा है? पहले के अफसरों में यह सद्गुण था और इस कारण कई सूचनाएं उन्हें समय पर मिल जाती थीं और वे घटनाओं पर जल्द नियंत्रण पा लेते थे। वीआईपी सुरक्षा में लापरवाही से राजीव गांधी की हत्या हुई तो लालकृष्ण आडवाणी, चिंदबरम पर चप्पल-जूते फेंके जा चुके हैं।
- रवींद्र कैलासिया

शनिवार, 25 जुलाई 2009

कौमार्य परीक्षण की आड़, बचीं धोखेबाज महिलाएँ?

गर्भवती महिलाओं के शादी के मंडप में बैठने के बाद मचे बवाल के बाद राजनीति उफान पर है। इस राजनीति में अब हथियार बने महिला आयोग। कांग्रेस ने जहां राष्ट्रीय महिला आयोग की एक सदस्य को कथित कौमार्य परीक्षण के लिए मप्र भेजा तो राज्य सरकार ने अपने राज्य महिला आयोग से जांच रिपोर्ट मांगी। दोनों आयोगों ने अपनी-अपनी सरकार के पक्ष में रिपोर्ट दे दी। केंद्रीय महिला आयोग ने जहां कौमार्य परीक्षण की पुष्टि कर दी तो राज्य महिला आयोग ने राज्य सरकार को क्लीनचिट दे दी कि कौमार्य परीक्षण नहीं हुआ। अब वास्तविकता क्या है आम आदमी की समझ नहीं आ रहा, किसे सही माने और किसे गलत।
महिला आयोगों के रवैये से उनकी कार्यप्रणाली पर जहां सवालिया निशान लग गया है वहीं उनके इस कृत्य से गलत ढंग से सरकारी योजनाओं का लाभ ले रही महिलाओं को एक तरह से प्रश्रय मिला है। उनके द्वारा सरकार को धोखा देकर योजना का लाभ लेने की कोशिश की गई। आज तक उनके खिलाफ राज्य शासन की तरफ से कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई। जबकि दूसरी सरकारी योजनाओं का गलत ढंग से फायदा उठाने वालों के खिलाफ संबंधित विभागों द्वारा एफआईआर दर्ज की जाती है। अब राज्य शासन को इस मामले को पुलिस के हवाले कर देना चाहिए। भले ही गर्भवती महिलाओं का कौमार्य परीक्षण हुआ हो या नहीं। मगर उन्होंने योजना का गलत ढंग से लाभ तो लेने की कोशिश की ही है। नेता इस तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे हैं कि उन महिलाओं को सबक मिलना चाहिए जो गलत तरीके से सरकारी योजना का लाभ लेने चली थीं। इसमें शायद किसी को भी एतराज नहीं होगा।
- रवींद्र कैलासिया

रविवार, 19 जुलाई 2009

राजनीतिक उपद्रवी और पुलिस के असली चेहरे ..


उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री मायावती-रीता बहुगुणा विवाद के दौरान एक बार फिर राजनीतिक उपद्रवी और पुलिस के असली चेहरे सामने आ गए। इससे यह भी साबित हो गया कि इन दोनों का गठबंधन कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के आधार पर बदलता रहता है। इलेक्ट्रानिक मीडिया इसका बहुत अच्छी तरह से खुलासा कर रहा है। प्रिंट मीडिया की काफी सीमाएं हैं जिसके वह इस गठबंधन को उजागर करने में अपना योगदान नहीं दे पा रहा है।

इलेक्ट्रानिक मीडिया को यह भी चाहिए कि रीता बहुगुणा कि मायावती के खिलाफ आखिर वह कौन-सी टिप्पणी थी जिसको लेकर इतना बवाल मचा। रीता बहुगुणा ने तो टिप्पणी पर माफी मांगने की बात कह दी मगर वह टिप्पणी कौन-सी थी जिस पर मायावती को इतना गुस्सा आया। ऐसी टिप्पणियों को भी प्रसारित किया जाना चाहिए जिससे नेताओं की जुबान पर लगाम लग सके। (मैंने न तो वह टिप्पणी कहीं पढ़ी न किसी चैनल पर देखी।) जिस तरह से नेता चुनावी सभाओं और राजनीतिक रैलियों, प्रदर्शन और सभाओं में अनाप-शनाप जो भी मुंह में आता है बोल देते हैं उस पर नियंत्रण किया जा सकेगा।

वैसे मायावती के राजनीतिक गुंडों ने जो रीता बहुगुणा के घर पर किया वह शर्मनाक ही नहीं अत्यंत घटिया है। कानून के पहरेदारों ने जिस तरह उनके कृत्य को मौन स्वीकृति दी वह समाज के लिए घातक संकेत है। कानून के पहरेदारों में वे लोग थे जो अखिल भारतीय स्तर की परीक्षाओं में बैठकर ऊंचे ओहदे पर पहुंचते हैं। अगर यह कृत्य टीआई, एसआई करता तो ये ही लोग उसे संंस्पेंड करते, कार्यशाला-संगोष्ठी में उनके बारे में कहते कि वे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होते हैं। टीवी में जो कुछ देखा उसको देखकर लगता है कि आईपीएस अधिकारी भी लुके-छिपे ढंग से नहीं खुलकर राजनीतिक संरक्षण हासिल करने में जुटे हैं। जब विपक्ष के इतने बड़े नेता के साथ सरकार का यह रवैया है तो फिर आम जनता गलत काम के खिलाफ आवाज उठाने का सोच भी कैसे सकेगी।

- रवींद्र कैलासिया

शनिवार, 18 जुलाई 2009

नेगेटिव पब्लिसिटी के बाद रियलिटी शो ..


हरियाणा के उप मुख्यमंत्री चंद्रप्रकाश उर्फ चांद मोहम्मद के साथ निकाह करने, कथित तौर पर अलग कर दिए जाने और कुछ समय पहले दोबारा एक हो जाने की नेगेटिव पब्लिसिटी पाने वाली फिजा वाकई बड़ी कलाकार हैं? सब टीवी के एक रियलिटी शो इस जंगल से मुझे बचाओ में फिजा भी शामिल हैं।

रियलिटी शो को देखने के बाद आठ-दस महीने के दौरान चांद-फिजा के बीच संबंधों को लेकर टीवी चैनल और समाचार पत्रों में जिस तरह उन्हें जगह मिली, वह एक नाटक ज्यादा लगता है। रियलिटी शो में कहीं भी फिजा के चेहरे पर महीनों के उस तनाव की झलक दिखाई नहीं देती। ऐसे में टीवी चैनलों और समाचार पत्रों को सबक लेना चाहिए कि कहीं कोई उन्हें हथियार तो नहीं बना रहा। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के एक परेशानी यह है कि उनके बीच ऐसी प्रतियोगिता ्शुरू हो चुकी है जिसके चलते उन्हें मार्केट में बने रहने के लिए ्न चाहते हुए भी जानते-बूझते ऐसे समाचारों को जगह देना पड़ती है। मगर ऐसे लोगों को पब्लिसिटी मिलने से दूसरे लोगों के हौंसले भी बढ़ते हैं।

- रवींद्र कैलासिया

सोमवार, 13 जुलाई 2009

राजस्थान ने बाजी मारी


राजस्थान ने बाजी मारीबाल विवाह, सती प्रथा, विधवा के साथ बुरा बर्ताव जैसे रुढि़वादी राजस्थान ने विश्व पर्यटन के क्षेत्र में बाजी मारी है। अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन शो में जाने मानी पत्रिका टे्वल एंड लेजर के सर्वे में राजस्थान के दो शहरों ने बाजी मारी है। एक शहर तो विश्व के सर्वोत्तम पर्यटन शहर के तौर पर बताया गया है। सती प्रथा, बाल विवाह और न जाने कितनी ही कुरीतियों के कुख्यात राजस्थान की इस उपलब्धि को अब प्रदेश सरकार को पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देकर विदेशी मुद्रा कमाना चाहिए।

टे्रवल एंड लेजर पत्रिका के सर्वे में उदयपुर को जहां विश्व के सर्वोत्तम शहर के रूप में माना है तो 20 सर्वश्रेष्ठ पर्यटन शहरों में जयपुर को भी स्थान दिया है। जयपुर 12 वें स्थान पर है। उदयपुर को सर्वोत्तम स्थान दिए जाने के पीछे सर्वे में कारण यह बताया गया है कि शहर का प्राकृतिक वातावरण, पहाडिय़ां और ऐतिहासिक धरोहर के साथ सुव्यवस्थित होटल है।

देखना यह है कि राजस्थान से सबक लेकर देश के दूसरे राज्य पर्यटन को सुव्यवस्थित करने की कहां तक कोशिश करते हैं। मप्र, उत्तरप्रदेश और कुछ अन्य राज्य तो यदाकदा इस तरह के आयोजन किए जाते हैं मगर अभी तक उसका ऐसा कोई शहर विश्व के पर्यटकों के लिए बहुत आकर्षण का केंद्र नहीं बन सका है।

- रवींद्र कैलासिया

शनिवार, 11 जुलाई 2009

घर की मुर्गी अब दाल बराबर नहीं...

कहते हैं कि घर की मुर्गी दाल बराबर, लेकिन अब यह बिलकुल सही नहीं है। मुर्गी तो पहले जहां थी वहीं है लेकिन दाल आज आसमान छू चुकी है। मांसाहारी लोग पहले जहां एक टाइम दाल खाना पसंद करते थे वे अब एक टाइम मुर्गा खा रहे हैं।
आज दाल की कीमत 85 रुपए किलोग्राम है। एक महीने में इसकी कीमत में 30 रुपए का इजाफा हुआ है। वहीं मुर्गा 60 रुपए किलोग्राम के हिसाब से बाजार में बिक रहा है। शाकाहारी लोगों का दाल खाना अब बंद होता नजर आ रहा है क्योंकि तुअर दाल दूसरी दालों की तुलना में सबसे ज्यादा महंगी हो चुकी है। दूसरे दालें भी महंगी हुईं हैं लेकिन किसी भी दाल की कीमत 60 रुपए किलोग्राम से ज्यादा नहीं पहुंचा है। शाकाहारी व्यक्ति की थाली से दाल शायद अब गायब हो जाएगी। मगर मांसाहारी व्यक्ति के पास विकल्प जरूर है। वह तुअर दाल की जगह दूसरी दालों की कीमत में मुर्गा खा सकता है।
लोकसभा चुनाव के पहले जो महंगाई थी वह नई और स्थिर सरकार बनने के बाद भी लगातार बढ़ रही है। आखिर इस पर लगाम लगाने के उपाय सरकार के पास हैं भी या फिर गरीब की थाली से दिन ब दिन एक-एक सब्जी गायब होती जाएगी।
- रवींद्र कैलासिया

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

ऐसी पुलिस चाहिए हमें...

समाज में महिलाओं के साथ असामाजिक तत्वों द्वारा छेड़छाड़ और उनके साथ जोर-जबरदस्ती के खिलाफ पुलिस की मूकदृष्टि से उसकी छवि सबसे ज्यादा खराब हुई है। भोपाल में एक घटना में पुलिस की तत्परता वाकई तारीफे काबिल है और समाज को ऐसी ही पुलिस चाहिए।
घटना भोपाल के अशोका गार्डन से मुख्य रेलवे स्टेशन जाने वाले रास्ते की है। यहां कुछ मनचले बाइक पर सवार होकर जा रहे थे। बारिश के कारण छाता लगाकर जा रही एक युवती से इन लोगों ने इस कदर छेड़छाड़ की कि उसे अपना रास्ता बदलना पड़ा। दैनिक भास्कर के एक फोटोग्राफर की नजर उस पर पड़ गई और उसने कैमरे में इन मनचलों की चार-पांच तस्वीरें उतार लीं। भला इस समाचार पत्र का कि उसने फोटोग्राफर की तस्वीरों को अखबार में जगह दे दी। समाचार पत्र में बाइक का नंबर भी था तो पुलिस ने तुरंत उसके मालिक का पता लगाया और दोनों मनचलों को पकड़ लिया। अब अगर ऐसी पुलिस समाज को मिल जाए तो कहना क्या? पुलिस ऐसी दो-चार कार्रवाई कर दे और उसका खासा प्रचार-प्रसार हो जाए तो असामाजिक तत्वों की मजाल कि वे राह चलती लड़की या किसी सार्वजनिक स्थान पर युवती को कुछ कह सकें। मगर इसमें समाचार पत्र को अपनी भूमिका का निर्वाह इस घटना जैसा करना होगा।
- रवींद्र कैलासिया

शनिवार, 4 जुलाई 2009

सरकारी अस्पताल में मोमबत्ती में प्रसव

एक सप्ताह पहले भोपाल शहर के एक सरकारी अस्पताल में छह गर्भवती महिलाओं की एक के बाद एक मौत होने की घटना के बाद भी व्यवस्थाओं में सुधार नहीं हुआ है। सप्ताह भर बाद शनिवार को अचानक बिजली गुल हो गई और एक अन्य अस्पताल में गर्भवती महिला को प्रसव पीड़ा शुरू हुई। फिर मोमबत्ती की रोशनी में सरकारी डॉक्टर ने उस महिला का इलाज किया और प्रसव कराया।
सप्ताह भर पहले सरकारी मेडिकल कॉलेज के महिला अस्पताल में चिकित्सकों की कथित लापरवाही से गर्भवती महिलाओं की मौत पर अधीक्षक डा। नीरज बेदी को आनन-फानन में हटा दिया गया था। इन मौतों के बाद महिला आयोग से लेकर राज्य शासन के चिकित्सा शिक्षा विभाग के दो आला अफसरों ने तुरंत निरीक्षण किया था। वहां उन्होंने डॉक्टरों की लापरवाही तो देखी मगर सुविधाओं पर गौर नहीं किया। मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया द्वारा जिस तरह खामियां बताकर इस मेडिकल कॉलेज को बार-बार चेतावनी दी जाती रही है। उन खामियों को आज तक दूर नहीं किया गया। शनिवार को राजधानी का जिला अस्पताल बारिश और तेज हवा के कारण बिजली गुल होने पर अंधेरे में डूब गया। जनरेटर चालू नहीं होने पर डॉक्टरों ने गर्भवती महिला का मोमबत्ती की रोशनी में इलाज किया। यह जनरेटर बार-बार बंद हो रहा था। क्या सरकारी डॉक्टरों के विपरीत परिस्थितियों में भी इस सेवाभाव को नजरअंदाज किया जा सकता है? अब उन अफसरों या जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कोई एक्शन होगा जो छोटी-मोटी प्राकृतिक आपदा की स्थिति में सरकारी अस्पताल जैसे संवेदनशील सार्वजनिक स्थान अंधेरे में डूब गया? क्या ऐसे में कोई बड़ा हादसा हो जाने पर लोगों की जान को खतरा पैदा नहीं हो सका?
- रवींद्र कैलासिया

मप्र में मंत्रियों की अपनों बदसलूकी, जनता से क्या करेंगे?


मप्र सरकार के मंत्रियों के मुंह में लगाम नहीं है। ये लोग अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं सहित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आनुषांगिक संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ भी बदसलूकी करन से बाज नहीं आ रहे तो आम जनता की क्या सुनवाई करेंगे।

खाद्य, नागरिक और आपूर्ति राज्यमंत्री पारस जैन ने नीमच की बंद पड़ी मंडी को खुलवाने की मांग कर रहे किसानों से मिलना तो दूर अफसरों से कह दिया कि मंडी बंद कर दो किसान खुद भीख मांगने आएंगे।पारस जैन नीमच जिले के प्रभारी मंत्री हैं और नीमच की बंद मंडी को खुलवाने के लिए वहां भारतीय किसान संघ (आरएसएस का आनुषांगिक संगठन) काफी दिनों से मांग कर रहा है। गुरुवार को मंत्री को किसानों ने मंडी को लेकर ज्ञापन देना चाहा तो उनका बर्ताव देखकर किसान संघ उत्तेजित हो गया। संघ के नेताओं ने मंत्री का निंदा प्रस्ताव पारित कर दिया और उनके त्यागपत्र की मांग कर डाली है।

गौरतलब है कि हाल ही में भाजपा सरकार के एक और मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने सतना के जिला केंद्रीय सहकारी बैंक अध्यक्ष कमलाकर चतुर्वेदी (भाजपा के जिले के वरिष्ठ नेता हैं) को राज्य मंत्रालय में सरेआम (मुख्यमंत्री की बैठक के बाद) अपशब्द कहे थे। इसको लेकर संगठन के दिग्गजों ने दोनों की मीटिंग कराई थी। इन उदाहरणों को देखने और सुनने के बाद लगता है कि प्रदेश की आम जनता को मंत्रियों से दूर रहना चाहिए। नहीं तो उनके साथ तो मंत्री जाने क्या करेंगे। उनकी सुनवाई तो कहीं होगी भी नहीं।

- रवींद्र कैलासिया

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

क्या बार गर्ल के साथ बलात्कार कोई अपराध नहीं

राजधानी में 17 जून को गांधीनगर के पास हुए गैंग रैप में पुलिस की विवेचना पर एकबार फिर कई सवाल खड़े हुए हैं। जल्दबाजी में उसने पहले एक स्थानीय दुकानदार को इसमें आरोपी बनाया और अब पुलिस पीडि़त महिला के बार गर्ल होने की वजह से उसके साथ हुई घटना पर ही संदेह करना शुरू कर दिया है। पुलिस को सबसे पहले यह चाहिए कि सामूहिक बलात्कार जैसे संवेदनशील मामले में किसी पर कीचड़ उछालने के पहले साक्ष्य जुटाए।
पुलिस ने पहले एक जबलपुर-जयपुर रोड स्थित परवलिया सड़क के पास एक चाय की दुकान वाले सत्यनारायण शर्मा को पकड़ा और उसे आरोपी के रूप में प्रचारित किया। पुलिस की मौजूदगी में उसने रोते-रोते कहा कि तीन लोग उसकी दुकान पर आए थे और कॉल गर्ल की तलाश कर रहे थे। घटना स्थल पर ब्रेसलेट मिलने को पुलिस ने इतनी गंभीरता से लिया कि जयपुर में जांच कराने का बयान दे दिया और उसके दिमाग में जरा-सी देर के लिए यह सवाल नहीं उठा कि क्या गैंग रैप जैसी घटना में आरोपी इतना बड़ा साक्ष्य छोड़ सकते हैं। अपनी बात को सही साबित करने के लिए उसके द्वारा जोर देकर यह कहा जाता रहा कि आरोपी घटना के बाद जयपुर की ओर भागे हैं। फिर क्या परवलिया सड़क जैसा स्थान वैश्यावृत्ति के लिए कुख्यात भी नहीं है जो सत्यनारायण की दुकान पर कॉल गर्ल की पूछताछ की जाए। भोपाल पुलिस मुंबई में एफआईआर के मुताबिक पीडि़त महिला के पति प्रमोद से बयान लेने गई तो वहां उसे जो जानकारियां मिलीं उसको विवेचना के पहले ही सार्वजनिक कर दिया। पीडि़त महिला बार गर्ल थी, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या बार गर्ल होना अपराध है। बार गर्ल होने पर क्या किसी महिला के साथ बलात्कार की कानून अनुमति देता है। अब पीडि़त महिला के बयानों को लगातार सार्वजनिक कर रही है। जिस प्रमोद को एफआईआर में पति बताया गया वह उसका पति नहीं है और उसके द्वारा भी बलात्कार में सहयोग किया गया। इस तरह पुलिस इस मामले की विवेचना में कई लापरवाही बरतती जा रही। शायद सब इसलिए किया जा रहा है कि घटना के बाद पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए गए थे और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तक ने डीजीपी से लेकर आईजी, एसपी तक की खिचाई की थी। लेकिन क्या अब पुलिस का यह रवैया ठीक है। उसे अब वैज्ञानिक साक्ष्य जुटाकर इसमें सही तथ्य सामने आने पर ही कोई बात कहना चाहिए।
- रवींद्र कैलासिया

बुधवार, 1 जुलाई 2009

मंडप में बैठी 10 फीसदी युवती गर्भवती

मध्यप्रदेश के शहडोल जिले में एक सामूहिक विवाह समारोह में 138 युवतियां मंडप के नीचे बैठी थी और उनमें से 14 गर्भवती पाई गईं। यह रहस्य उस समय खुला जब सरकारी मेडिकल टीम ने उन युवतियां की उम्र का परीक्षण कर रही थी। यह एक अखबार के लिए छोटा सा समाचार था मगर हमारे समाज के लिए बड़ा झटका है। हमारी संस्कृति के साथ इलेक्ट्रानिक मीडिया और फिल्मों द्वारा किए जा रहे खिलवाड़ का यह नतीजा है।
मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के तहत जिला प्रशासन द्वारा सामूहिक विवाह समारोह का आयोजन किया जाता है जो शहडोल में होता है। इसमें कम उम्र की लड़कियों की शादी न हो जाए यह एहतियात बरतने के लिए जिला प्रशासन द्वारा विवाह से पहले उनकी उम्र की जांच कराई जाती है। यह एहतियात इसलिए बरता जाता है क्योंकि इसके पहले एक आयोजन में यहां एक गर्भवती युवती का विवाह हो चुका है। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री कन्यादान योजना में लड़की शादी में सरकार खर्च करती है। मंडप के नीचे बैठी युवतियों में से 10 फीसदी के गर्भवती होना समाज को सतर्क रहने के संकेत हैं। यह तो सरकारी आयोजन था तो पता चल गया। परिवार के लोगों और स्वयं युवतियों को इस दिशा में सोचना चाहिए। जिससे उनका भविष्य खराब न हो।
- रवींद्र कैलासिया

फ़ॉलोअर