शुक्रवार, 12 जून 2009

विदेशों की तर्ज पर बिना काम के खाना

मप्र में शिवराज सिंह चौहान की लाड़ली लक्ष्मी, जननी और कन्यादान जैसी योजनाओं से विधानसभा चुनाव जीते थे और लोकसभा चुनाव में उन्हें ऐसी कोई दूसरी योजना बनाने का अवसर नहीं मिला तो करारी हार मिली। अब नगर निगम, नगर पालिका, पंचायत चुनाव आने जा रहे हैं और उन पर कब्जा जमाने के लिए वे जनता को बेवकूफ बनाने का यह मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहेंगे।
मतदान केंद्र पर ज्यादा संख्या में पहुंचने वाले वोटर को रिझाने के लिए अब प्रदेश भाजपा सरकार उनको फिर दाना फेंकने जा रही है। इस बार गरीब बच्चों के साथ उनके परिवार महिलाओं और बुजुर्गों के लिए उसने खाना देने की योजना तैयार की है। अगर सब कुछ उनकी योजना के मुताबिक चला तो गरीब परिवार के बच्चे के अलावा महिलाओं- बुजुर्गों को काम करने की जरुरत नहीं पड़ेगी।
सरकार की योजना तो अच्छी है मगर यह समाज के हित में नहीं है। ऐसे में समाज को हम मक्कारी की राह पर ले जा रहे हैं। काम करने के लिए अभी जो व्यक्ति दर - दर भटकता है वह फिर सरकारी खाने के लिए लाइन में लगने लगेगा। काम के लिए मजदूर नहीं मिलेंगे। मजदूरों की कमी से योजनाओं की लागत बढऩे की आशंका रहेगी। महिलाओं और बुजुर्गों के लिए अगर खाने का इंतजाम करना ही है तो उसके लिए बुनियादी स्तर से अधोसंरचना तैयार कर पूरा सेटअप बनाकर उसे लागू किया जाना चाहिए। केवल साल दो साल की अस्थाई व्यवस्था से उनका भला नहीं किया जा सकता।
शिवराज सरकार के सलाहकार शायद उन्हें अर्जुनसिंह की राह पर ले जा रहे हैं। जिस तरह अर्जुन सिंह ने प्रदेश को कई समस्याओं को जन्म दिया। झुग्गी बस्तियों के पट्टे देने की प्रथा के कारण आज सरकारी जमीन पर झुग्गी तानने की आदत ऐसी बढ़ गई है कि चुनाव के पहले तो सैकड़ों झुग्गी कुकरमुत्ते की उग जाती हैं।
वोट और कुर्सी बनाए रखने के लिए शिवराज सिंह चौहान भी शायद वही गलती दोहरा रहे हैं। जिस तरह झुग्गी बस्तियिों के लिए उन्हें लोग कोसते हैं कहीं ऐसा कर वे उसी अंदाज में बाद में याद नहीं किए जाएं। आखिर जो रोटी और सब्जी गरीबों को वे देंगे वह निम्न मध्यम, मध्यम, उच्च मध्यम परिवारों के हिस्से से काट कर ही दी जाएगी। ऐसे में उनके बारे में सरकार कब सोचेगी? बच्चों और बुजुर्गों को बिना काम के खाना दिया जाए मगर महिलाओं को जब बराबरी का दर्जा देने के लिए चारों तरफ चर्चा चल रही है तो उन्हें कम से कम ऐसे फैसलों से अलग रखना चाहिए। क्या हम विदेशों की नागरिकों को देशहित में सोचने के प्रेरित नहीं कर सकते। उनमें ज्यादा से ज्यादा संख्या और पूरा कर देने की भावना जाग्रत करने की कोशिश नहीं कर सकते। केवल वोट की खातिर कब तक सरकारें ऐसे कदम उठाती रहेंगी?
- रवींद्र कैलासिया

3 टिप्‍पणियां:

  1. इस रवैए से मैं सहमत नहीं हूं। खाने का अधिकार बुनियादी अधिकार है। उसका काम करने या न करने से कोई संबंध नहीं है। यदि मनुष्य न खाए, तो जीवित नहीं रह सकता। उससे काम लेना या न लेना समाज और शासन की जिम्मेदारी है, न उसकी अपनी।

    विदेशों में भोजन, वस्त्र और आवास का जिम्मा वहां की सरकारों ने ली है। यही कायदे से हमारे देश में भी होना चाहिए। इन बुनियादी जरूरतों से मनुष्य समेत किसी भी प्राणी को वंचित नहीं रखा जाना चाहिए। इसी को सभ्यता कहते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नेताओं.. की फितरत ही ऐसी होती है..नयी नयी योजनायें बनाना ही तो उनका काम है,क्रियान्वयन तो होगा नहीं....

    जवाब देंहटाएं
  3. वोट की राजनिति ने ही देश का बंटाधार किया है और नेता कभी सुधर नही सकते।अभी तो ऐसा ही नजर आ रहा है।

    जवाब देंहटाएं

फ़ॉलोअर