रविवार, 2 अगस्त 2009

बुजुर्ग ही क्यों राज्यपाल

गुजरात में राज्यपाल देवेंद्र नाथ द्विवेदी के राज्यपाल पद की शपथ लेेने के पहले ही उनका निधन हो जाने पर अब राजनीतिक पार्टियों को यह सोचना चाहिए कि उम्रदराज नेताओं को पूरा आराम करने दें। वे राजनीतिक पारी पूरी करने के बाद पार्टियां बुजुर्ग नेताओं को राज्यपाल बनाने से बाज आएं। ऐसे नेता राज्यपाल जैसे प्रतिष्ठित पद बैठने के बाद न तो अफसरों और कुलपतियों की बैठकें लेेते समय लंबे समय तक बैठ नहीं पाते। कार्यक्रमों में सीढिय़ां तक नहीं चढ़ पाते। और तो और उनकी उम्र के कारण राजभवन में चिकित्सकों की सेवाएं लेेने की ज्यादा जरूरत पडऩे लगती है।
हाल ही में केंद्र सरकार ने मप्र सहित कुछ राज्यों में ऐसे बुजुर्ग नेताओं को उठाकर राज्यपाल बनाया है जो 70 और 80 की उम्र के हो चुके हैं। प्रदेश के एक और बुजुर्ग नेता अर्जुनसिंह को भी पार्टी किसी राज्य का राज्यपाल बनाने की सोच रही थी। आखिर राजनीतिक पार्टियों को ऐसे बुजुर्ग नेताओं को सक्रिय राजनीति से अलग करने का यह तरीका क्यों अपनाना पड़ता है? क्या ये नेता मरते दम तक पार्टी की जिम्मेदारी हैं? और अगर ऐसा है तो जनता पर क्यों बोझ डाला जाता है? राजनीतिक दलों को इस तरफ सोचना चाहिए।
- रवींद्र कैलासिया

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